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तन ही नहीं, मन भी निर्मल हो

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महाभारत की लड़ाई के बाद पाण्डवों ने एक के बाद एक यज्ञ किये, किन्तु स्वजन-हत्या के दोष से चेतना को रंचमात्र भी सांत्वना नहीं मिली। उल्टे राजभोग के प्रति ग्लानि की भावना और जोर पकड़ती गयी। अन्त में, विदुर जी के आदेश को शिरोधार्य कर माँ कुन्ती के सहित द्रोपदी एवं पाँचों पाण्डव तीर्थाटन को निकल पड़े। योजना के अनुसार पहला पड़ाव व्यास मुनि का आश्रम था। व्यासजी ने प्रेम से सबका स्वागत किया और मनःशान्ति के लिये कुछ दिन उन्हें अपने पास ही टिकाया। आगे की यात्रा के लिए जब पाण्डव व्यास मुनि से विदा लेने लगे तो महर्षि ने अपना तुम्बा उठाकर युधिष्ठिर के हाथ में थमा दिया और कहा- "वत्स, तीर्थों में जब तुम स्नान करो तो अपने साथ इस तुम्बे को भी एक-दो डुबकियाँ लगवा दिया करना, तुम्हारे साथ मेरा यह तुम्बा भी निर्विकार हो जायेगा।" व्यासजी ने प्रेम से सेवा का अवसर दिया है, पाण्डवों को इस प्रसंग से बड़ी प्रसन्नता हुई। अनमोल धरोहर के रूप में उन्होंने उस तुम्बे को सहेजकर रखा और पुण्यसरिताओं में स्नान करते समय उसे भी स्नान कराया । जब पाण्डवगण / वापस लौटे तो अन्तिम पड़ाव व्यासाश्रम ही था। सबने व्यासजी के...

कामना और वासना का चक्रव्यूह

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कौरवों ने जब पाण्डवों को एक सुई के बराबर भूमि देने में भी आना - कानी की और भगवान कृष्ण के समझाने पर वह नहीं माने तो इसका परिणाम महाभारत के रूप में आया , जिसमें भारतवर्ष के प्रत्येक राजा ने भाग लिया था। असंख्य व्यक्ति परलोक सिधारे , करोड़ों रुपए की हानि हुई। दुर्योधन और उसके साथियों की हार हुई और पाण्डवों की विजय नेत्रहीन महाराज धृतराष्ट्र अपने लड़कों के मारे जाने के कारण बहुत दुःखी रहने लगे। स्थूल नेत्र तो पहिले ही भगवान ने उनसे छीन रखे थे , जिसके कारण वह इसके भौतिक संसार को देखने में असमर्थ थे , परन्तु अब उनके मन में भी अंधकार छा गया , मानो उनके लड़के उनके मन के प्रकाश दीप थे। उनकी आँखों से ओझल होने से उनके मन का दीप भी बुझ गया। महाराज युधिष्ठिर उनका बहुत सम्मान करते थे और इस बात का ध्यान रखते थे कि उनसे कोई ऐसी बात न हो जाये जिससे उनके मन को धक्का लगे परन्तु फिर भी वह निरन्तर दुःखी रहा करते थे। महात्मा विदुर संन्यास आश्रम ...