कामना और वासना का चक्रव्यूह

कौरवों ने जब पाण्डवों को एक सुई के बराबर भूमि देने में भी आना-कानी की और भगवान कृष्ण के समझाने पर वह नहीं माने तो इसका परिणाम महाभारत के रूप में आया, जिसमें भारतवर्ष के प्रत्येक राजा ने भाग लिया था। असंख्य व्यक्ति परलोक सिधारे, करोड़ों रुपए की हानि हुई। दुर्योधन और उसके साथियों की हार हुई और पाण्डवों की विजय नेत्रहीन महाराज धृतराष्ट्र अपने लड़कों के मारे जाने के कारण बहुत दुःखी रहने लगे। स्थूल नेत्र तो पहिले ही भगवान ने उनसे छीन रखे थे, जिसके कारण वह इसके भौतिक संसार को देखने में असमर्थ थे, परन्तु अब उनके मन में भी अंधकार छा गया, मानो उनके लड़के उनके मन के प्रकाश दीप थे। उनकी आँखों से ओझल होने से उनके मन का दीप भी बुझ गया। महाराज युधिष्ठिर उनका बहुत सम्मान करते थे और इस बात का ध्यान रखते थे कि उनसे कोई ऐसी बात हो जाये जिससे उनके मन को धक्का लगे परन्तु फिर भी वह निरन्तर दुःखी रहा करते थे।

महात्मा विदुर संन्यास आश्रम में प्रवेश कर चुके थे। वह देश-देशान्तर का पर्यटन करके वहाँ आये। पुत्रों की मृत्यु के शोक से दुःखी धृतराष्ट्र की दयनीय दशा देखकर, उनका दुःख दूर करने के लिए वह उन्हें समझाने लगे कि यह शरीर क्षणभंगुर है। यह हमेशा रहने वाला नहीं है। एक दिन तो मिट्टी में मिलना ही है। शरीर से कोई अमर हुआ है और होगा, इसलिये इसके लिए रोना धोना बुद्धिमानी की बातें नहीं हैं। आत्मा की अमरता को निरन्तर ध्यान में रखना चाहिए। वह नहीं मरती। केवल अपना चोला बदलकर दूसरा शरीर धारण कर लेती है। इसलिए उनके लिए शोक करना उचित नहीं है। इसी बीच में उन्होंने एक कथा सुनाई

एक बार मैं एक वन से जा रहा था जो बहुत ही भयानक था। ऊँचे घने पेड़ों से वहाँ अंधकार-सा दिन में भी रहता था। बड़े-बड़े झाड़-झंखाड़ों की कमी थी घाटियों में जाने से वहाँ आगे का मार्ग मिलना कठिन था ! हाथियों की चिंघाड़ और शेरों की दहाड़ सुनाई देती ही रहती थी। दूसरे जंगली जानवर वहाँ प्रायः देखे ही जाते थे। ऐसे भयानक वन में अकेले जाने से कदम-कदम पर प्राणों का भय रहता है।

वहाँ मैंने एक ब्राह्मण को देखा जो अपना मार्ग भूलकर उस वन में भटक रहा था। उसे आगे जाने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। जंगली जानवरों की आवाजों से वह भयभीत हो रहा था। अपने प्राणों की रक्षा के लिए वह कभी इधर जाता था, कभी उधर भयानक आवाजें साकार रूप लेकर उसकी आँखों के सामने घूमने लगीं, उसे डरावने चित्र दिखाई देने लगे। एक राक्षसी को तो सामने देखकर उसके प्राण सूख जाते थे। वह जिधर भी भागने का प्रयत्न करता वह उधर ही अपना मुख खोले दिखाई पड़ती थी कि वह अभी उसे हड़प कर जायेगी। वह उससे घबरा जाता और चीख मारकर दूसरी. ओर भागता इससे वह बहुत परेशान था। काँटों पर चलने से उसके पैर जख्मी हो गये थे। उसके शरीर के स्थानों से रक्त निकल रहा था। झाड़-झंखाड़ों के कारण मार्ग ऐसा पेचीदा था कि वहाँ से निकलना बहुत कठिन था।

इधर-उधर की भाग-दौड़ में वह थककर चूर हो चुका था। वह डायन बार-बार सामने आकर उसे बहुत तंग कर रही थी। ब्राह्मण किंकर्तव्यविमूढ़ हो रहा था। एक बार जो डर के मारे भागा तो एक गड्ढे में गिरा। दैव कृपा से एक पेड़ की जड़ बाहर को निकली हुई थी। उसे उसने पकड़ लिया और लटक गया। कहते हैं दुःख और कठिनाइयाँ अकेले नहीं आती हैं, वह अपने बाल-बच्चे भी साथ लाती हैं। पहिले तो उस डायन से ही उसका हृदय काँप रहा था। अब उसके और बहिन-भाई सामने दिखाई देने लगे। उसकी दृष्टि नीचे गड्ढे में गई, तो एक बड़ा सर्प दिखाई दिया। यदि वह नीचे गिर पड़ता है, तो वह उसे दूसरी दुनिया में पहुँचा देगा। उसके भय से उसने चाहा कि बाहर निकल जाऊँ। उचककर देखा तो छह मुख और बारह टाँगों वाला एक हाथी दिखाई पड़ा। पेड़ पर शहद की मक्खियों ने छत्ता बना रखा था। उन्होंने उसे काटना शुरू किया। नीचे सर्प और ऊपर हाथी का भय, मक्खियों के काटने का दर्द, यही क्या थोड़ा था, जिस जड़ को वह पकड़े हुए था उसको सफेद काले रंग के दो चूहे काटते दिखाई दिये। अब तो मृत्यु का क्षण उसकी आँखों के सामने आने लगा और उससे छुटकारे का कोई उपाय दिखाई दिया। भय से उसका शरीर कॉप रहा था। इतने में मक्खियाँ उड़ीं, छत्ता हिलने लगा और शहद की बूँदें ब्राह्मण के मुख में टपकने लगीं। ब्राह्मण सब कुछ भूलकर शहद खाने में दत्तचित्त हो गया।

 महात्मा विदुर धृतराष्ट्र से कह रहे हैं कि महाराज ! उसकी बुद्धिहीनता देखिए, मृत्यु उसके सिर पर नाच रही है। नीचे और ऊपर कहीं भी जाने के लिए मार्ग नहीं है। चूहे डाली की जड़ को काट रहे हैं, जिससे नीचे गिरने का भय है। भय के अतिरिक्त मक्खियाँ अलग शरीर को पीड़ा पहुँचा रही हैं। इतना होने पर भी वह उन कठिन परिस्थितियों से निवृत्त होने का कोई मार्ग ढूँढ़ने का प्रयत्न नहीं करता, बल्कि शहद की बूँदें मिलने पर उन सबको भूल गया है। वह यह चाहता है, अन्य कष्ट उसे भले ही होते रहें परन्तु यह शहद की बूँदें टपकती रहें।

महाराज धृतराष्ट्र ने जिज्ञासा प्रकट की कि क्या ऐसी भी विवेकहीनता संभव है ? इस वन, ब्राह्मण, हाथी, सर्प, डायन और चूहों आदि के बारे में पूरी तरह समझाइये

विदुरजी ने कहा कि यह दृष्टान्त तो समझाने के लिए है। वह ब्राह्मण कोई विशेष व्यक्ति नहीं है। किसी भी मनुष्य को आप समझ सकते हैं। संसार को वन से उपमा दी गई है। ब्राह्मण के साथ जहाँ यह घटना हुई, उसको मनुष्य का जीवन समझिये। वह झाड़-झंखाड़, जंगली जानवरों की भयभीत करने वाली आवाजों को आप जीवन में आने वाले कष्टों, कंठिनाइयों को जानें। वह डायन जिसे देखकर वह डरकर इधर-उधर भागता था, वह वृद्धावस्था है। जो सभी को दिखाई देती है। जिस घाटी में वह ब्राह्मण गिरा था, वह मनुष्य शरीर है। जिन जड़ों और झाड़ियों से वह लटक रहा था, वह उसकी कामनाएँ, वासनाएँ, तृष्णाएँ हैं। छह मुख और बारह टाँगों वाला हाथी समय है। एक वर्ष में छह ऋतु और बारह महीने होते हैं। काले और सफेद चूहे रात और दिन हैं, जो हमारी आयु को काट रहे हैं। शहद की मक्खियाँ वह परिस्थितियाँ हैं, जिनसे हमारा मन अशान्त रहता है। शहद की बूँदें वह भौतिक सुख हैं, जो हमें कष्टों और परेशानियों के साथ-साथ कभी-कभी प्राप्त होते रहते हैं। इनको प्राप्त करने की कामना से हम शेष सभी कष्टों को भूल जाते हैं।

उनके लिए हमें उचित तथा अनुचित उपार्यो को अपनाने में संकोच नहीं होता। हमने क्षणिक और अस्थाई सुख को मुख्य समझ रखा है और वास्तविक सुख को गौण कर दिया है। इसी गलत दृष्टिकोण को अपनाकर हम अपनी कामनाओं को बढ़ाते रहते हैं। यह हम भली प्रकार जानते ही हैं कि झूठी इच्छाओं को बढ़ाने से दुःख ही हाथ लगता है। हमें वृद्धावस्था के दुःख सामने दिखाई देते हैं। सर्प के रूप में मृत्यु अपना मुख खोले तैयार खड़ी है। फिर भी यह अस्थाई सुखों की ओर दौड़ता है। "विदुरजी ! आप ठीक कहते हैं।" धृतराष्ट्र हिलाकर कहा ।ने सिर "आप अपने पुत्रों के संबंध में ही देख लीजिए। उन्होंने राज्य की कामना से पाण्डवों को धोखा दिया और सारा राज्य छीन लिया। इसका दुष्परिणाम आपके सामने है। आपकी कामना राजपाट में और लड़कों में थी। उनमें से कुछ भी नहीं रहा इसलिए इनमें स्थिरता नहीं है। अस्थिर वस्तुओं में मोह करना कोई बुद्धिमानी की बात नहीं है। आप अपने मन से विचारों को निकाल डालें। तभी आपको शान्ति प्राप्त होगी।विदुरजी ने गम्भीरतापूर्वक कहा

महाराज धृतराष्ट्र को विदुरजी की बातों से बहुत कुछ शान्ति का अनुभव हुआ। वह कुछ दिनों के बाद उनके साथ गंगा तट पर गये और वहीं रहने लगे। वहीं कुछ समय बाद शान्तिपूर्वक प्राण छोड़े।

                    धन्यवाद 

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