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समर्पण योग की सच्ची साधना

                              समर्पण योग की सच्ची साधना अन्तःकरण में वैराग्य की ज्योति जलते ही महाराज हरिदास का मन राजपाठ के भोग विलास से उचटने लगा । एक अभाव सदा महसूस होने लगा कि अपने स्वरूप एवं लक्ष्य से अपरिचित रहकर जीवन का एक बड़ा भाग व्यर्थ चला गया। शेष को गँवाना उचित नहीं, यह सोचकर राज्य भार महामन्त्री को सौंपकर वे वन में कठोर तप करने के उद्देश्य से चल पड़े। दिन बीतते गये और उसके साथ-साथ हरिदास की साधना भी प्रचण्ड होती चली गयी। चित्त की वृत्तियों के निरोध तथा मन की मलीनताओं के परिशोधन के लिए उन्होंने जप, तप एवं तितीक्षा की कठोर साधनाएँ कीं। तपाग्नि में जलकर काया अत्यन्त दुर्बल हो गयी। आत्मदेव की उपासना में शरीर का भी ध्यान न रहा, पर इन कठोर साधनाओं के बावजूद भी हरिदास का मन व्यग्र असन्तुष्ट बना हुआ था। आत्मसाक्षात्कार का लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा था। सब कुछ निराशाजनक और प्रयत्न निष्फल जान पड़ रहे थे। साधना की तन्द्रा की स्थिति में भीतर से आवाज आयी- सबसे मूल्यवान वस्तुओं का समर्पण कर, तुझे लक्ष्य की प्राप्ति ह...