जब आया एक अनोखा विश्वास (When a strange belief came)
नदी घड़ियालों से भरी थी, आकाश मच्छरों से, तटीय प्रदेश लम्बी घासों से, जिनमें विषैले सर्पों की गणना नहीं। वन में शेर, तेंदुएँ, चीते। पेड़ों पर भी शरण लेना मुश्किल था। वहाँ भी साँप और तेंदुएँ छलाँग लगा सकते थे।
उसने सोचा भी नहीं था कि जर्मनी के इस इलाके में उसे रात बितानी पड़ेगी। सूरज डूबने के पहले वे लौट जाएँगे ऐसा उसका विचार था। लेकिन सूरज कब के पश्चिम में पहुँच चुके और अभी पता नहीं वह कहाँ है ? कितनी दूर है यहाँ से उसका शिविर ?
किसी भी नक्शे में इधर की नदी के मोड़ों एवं उसकी धाराओं का स्पष्ट अंकन नहीं है। दलदल से भरे इस इलाके में आने का साहस कितनों को है। जब सुबह वह चला था, सबने रोका था उसे एक अनजाने प्रदेश में केवल अनुमान के भरोसे जाना ठीक नहीं, यह चेतावनी उसे न जाने कितनी बार मिली थी, पर वह शिकारी कैसा जो डर जाए ? सिर्फ एक मल्लाह तैयार हुआ था साथ चलने को, वह मल्लाह इस ओर एक बार आ चुका था। आया वह भी था दुर्घटनावश ही, लेकिन रास्ता उसने देख लिया था। अन्य लोगों में सब हतोत्साह करने वाले ही थे। "नदी की कई धाराएँ हैं मुख्य धारा से चले तो दोपहर तक सागर के समीप जा पहुंचेगें और जब समुद्र में ज्वार आएगा, नौका अपने आप ऊपर बह निकलेगी। हम दोनों शाम तक यहीं आ जाएँगे।" चलते समय मल्लाह ने बताया था ।
"शिकार के लिए मगर, शेर और दूसरे जानवर आसानी से मिल जाएँगे।" यह बात पक्की थी— नदी की इस धारा का नक्शा ठीक बनाया जा सकेगा। यही बड़ा प्रलोभन था, क्योंकि वह वन-विभाग का अधिकारी भी तो है। देश को ठीक मानचित्र देना उसके कर्तव्य में आता है।
इस ओर उसका पड़ाव आया था सात दिन पहले । वन का सर्वेक्षण चल रहा है। साथ में डाक्टर है, दूसरे और कर्मचारी हैं, हेलीकॉटर यान भी है। दलदलीय इलाके में सर्वेक्षण का काम आकाश से ही करना पड़ता है। किन्तु इधर वन बहुत सघन हैं। पानी में भी सब जगह ऊँची घास खड़ी है। आकाश से नदी की धारा का पता ही नहीं लगता। ये सब तमाम कारण और शिकार का प्रलोभन उसे इधर खींच लाए। वह नदी के मार्ग का अंकन करने वाला माना जाएगा यह कम प्रतिष्ठा की बात नहीं थी।
एक की जगह दो छोटी नावें पसन्द कीं उसने । दोनों में पीने का पानी, दोपहर का भोजन, दूरबीन तथा अन्य जरूरी सामान, लेकिन प्रस्थान करने के दो-ढाई घण्टे बाद ही दोनों ने समझ लिया कि उनके सब अनुमान ठीक नहीं हैं। नदी में मोड़ बहुत थे अनुमान से सोलह मोड़। धूप में तेजी आयी तो लगा शरीर का चमड़ा जैसे भस्म हो जाएगा। दोनों नार्वे एक में बाँध दी गई और उन्होंने बारी-बारी खेना प्रारम्भ किया।
मच्छरों का आक्रमण चल रहा था। उनसे बचना कठिन था। घड़ियाल मिले अच्छे बड़े भी मिले। लेकिन मल्लाह ने सलाह दी अभी कारतूस उपयोग में न लाएँ पता नहीं कब कैसी परिस्थिति आ पड़े ? अब उसे भी अपने मार्ग-ज्ञान पर भरोसा नहीं रह गया था। उसे जो कुछ स्मरण था वह बहुत धुँधला और अपूर्ण था। नदी आगे चलकर दो धाराओं में बँट गई थी और उसे यह मालूम नहीं था कि उनमें मुख्य धारा कौन-सी है ?
"तुम एक धारा से जाओ और मैं दूसरी से " अन्त में उन्होंने निर्णय किया-"नदी की दोनों धाराएँ जरूर आगे मिल गई होंगी। हर दशा में हम तीसरे प्रहर लौट पड़ेंगे और यहाँ आकर दूसरे साथी की प्रतीक्षा करेंगे।" दोनों नावें अलग-अलग चल पड़ीं। अब न मच्छरों को भगाने का अवकाश था और न हाथों को नौका खेने से विश्राम मिलता था। नदी से घास के सड़ने की गन्ध आ रही थी। ऊँची घास को चीरते हुए नौका को मार्ग बनाना था। साथ का भोजन समाप्त हो गया और पानी भी। दोपहर ढलने लगी थी। प्रत्येक मोड़ पर लगता था कि अब आगे दूसरी धारा आ मिलेगी, किन्तु मोड़ बीतते ही दूसरा मोड़ दीखने लगता । संयोग से किनारे पर सूखी भूमि दिखाई पड़ी। कुछ फल के पेड़ भी थे। पके मधुर फर्लो ने उदर की ज्वाला भड़का दी। उसने नौका तट से बाँधी एक घास के झुरमुट से, और कूद पड़ा। राइफल भूमि में पटक दी वृक्ष पर चढ़ते समय बड़े स्वादिष्ट फल भर पेट खाया। शाखा पर बैठकर शरीर को विश्राम दिया किन्तु जब उतरने की इच्छा की 'अरे' वह चौंक पड़ा।
नीचे राइफल की नाल पर सूर्य की किरणें चमक रही थीं और एक कद्दावर शेर उस पर पंजे रखकर गुर्रा रहा था। वह राइफल के सर्वेक्षण में लगा था। पेड़ पर भी कोई इस ओर उसका ध्यान नहीं था ।
‘अब क्या हो ?” उसे लगा कि शरीर का सारा खून जम रहा है। विपत्ति अकेले नहीं आती। तट की ओर नजर गई तो नौका नदारद । नदी का पानी अब पूरे वेग से नीचे बह रहा था। समुद्र में सम्भवतः भाटा आ चुका था। नदी उतर रही थी। पानी में प्रवाह आने के कारण नाव-नीचे बह गई थी। घास उसे रोकने में समर्थ नहीं हुई थी। आज जीवन में शायद पहली बार उसका साहस टूटा रहा था। जिस "ईश्वर" की वह हमेशा खिल्ली उड़ाया करता था— आज मन के किसी कोने में उसकी याद उभरने लगी थी ।
अपनी असहायता को अनुभव कर वह चीख पड़ा । शेर गुराया चीख सुनकर उसने सिर उठाकर ऊपर देखा और उठ खड़ा हुआ। पता नहीं क्या सोचा उसने, किन्तु धीरपदों से वन में चला गया। उसकी जान में जान आई। वह उतरा वृक्ष से। नदी के किनारे-किनारे नौका ढूँढ़ने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था। यही एक आशा थी कदाचित कहीं घास में में उलझ जाय । या मोड़ पर वह अटक कितनी दूर गया वह स्वयं उसे पता नहीं। दिन छिपने को आ गया। नाव का पता न मिलना था, न मिला। अब अँधेर होने से पहले उसे कोई ठीक स्थान रात बिताने के लिए ढूँढ लेना चाहिए। समुद्र में ज्वार आएगा तब नाव स्वतः ऊपर लौट जाएगी आशा थी ।
यह उसने लकड़ियाँ जमा कीं। अँधेरा होने से पहले आग जला ली। अब आग के सहारे रात बिता सकता है। लेकिन सूर्यास्त के बाद बादल छा गए। अँधेरा इतना घना कि अपना हाथ भी दिखाई न दे। अग्नि में बार-बार लकड़ियाँ डालता रहा। उसे लगा कि लकड़ियाँ थोड़ी है। आधी रात तक भी आग जल नहीं सकेगी। अग्नि के प्रकाश में उसने नजर दौड़ाई तो नदी के समीप एक बड़ा कुन्दा दीख पड़ा। वह गया और घसीटते हुए काले कुन्दे को ले ही आता पर कुन्दा उसके पास पहुँचने से पहले ही पानी में सरक गया। 'घड़ियाल' काँप गया उसका शरीर । आग स्वतः बुझने वाली थी। बरसात ऊपर से शुरू हो। गई। राइफल का सहारा लिए वह वृक्ष के तने के समीप खड़ा हो गया। कुछ सोच पाता इसके पहले कोई भारी वनपशु और नदी में भारी ध्वनि हुई। तेंदुआ और घड़ियाल मौत ने अब झपट्टा मार दिया था उस पर एक कड़ा झटका पीठ पर लगा और राइफल हाथ से छूटकर पानी में छपाक करती गिरी ।
"हे ईश्वर ।" प्राण जाते समय प्राणी के कण्ठ से जो आर्तनाद फूटता है बिना अनुभव के कोई उस स्वर को समझ नहीं सकता। कोई आशा, कोई युक्ति कोई बल नहीं रह जाता दिखाई देता है मौत का कराल जबड़ा धन्यभाग्य वह जो उस परम सहायक को पुकार सके । आज उसमें पहली बार प्रार्थना के स्वर फूटे थे। जगा था एक अनोखा विश्वास ।
सर्वेश्वर से प्रार्थना करने वाले को निराश नहीं होना पड़ता। पर प्रार्थना शब्द नहीं है वह भाव है समूचे अस्तित्व का सार जो विश्वास बनकर उमड़ पड़ता है। सहसा आकाश की घटा में चन्द्रमा की किरणें निकल पड़ीं। उसने उस ज्योत्सनाधौत जल में जो कुछ देखा-अद्भुत, रोमांचकारी और चकित कर देना वाला दृश्य था वह । उसके ठीक पीछे तेंदुआ कूदा था और अब उससे घड़ियाल का युद्ध चल रहा था। सम्भवतः घड़ियाल ने जब स्वयं उसका पैर पकड़ना चाहा तेंदुआ वृक्ष पर से कूदा । घड़ियाल के मुख में तेंदुए का पैर आ गया था। घड़ियाल उसे खींच रहा था और एक पैर जल में डूबे किसी वृक्ष की जड़ में अड़ाए तेंदुआ दूसरे पैर का पंजा घड़ियाल पर फटकारे जा रहा था। घड़ियाल पूँछ फटकार रहा था, जिससे तेंदुआ उसे मुख पर न मार सके और इस युद्ध में उछलते छीटें समीप खड़े उसे भिगो रहे थे।
उसने झुककर पानी में से अपनी राइफल उठाई। कण्ठ से फिर निकला दयामय प्रभु ! और सिर उठाया तो दिखाई दिया कि एक काली लम्बी वस्तु नीचे से ऊपर नदी में ज्वार के वेग में बहती चली आ रही है। दो क्षण में स्पष्ट हो गया कि वह उसकी नौका है। शब्द तो नहीं थे, इन क्षणों में उसके समूचे अस्तित्व से प्रार्थना झर रही थी। कब वह नाव को चलाते हुए। वहाँ पहुँच गया, जहाँ मल्लाह उसकी प्रतीक्षा कर रहा था-उसे तो पता भी नहीं चलता। लेकिन "जार्ज साहब" मल्लाह के इन शब्दों ने उसे चौंकाया। उसने मल्लाह की ओर देखा वह कहे जा रहा था मैं सायंकाल यहाँ पहुँचा था। मल्लाह ठीक वहीं था जहाँ से वे पृथक् हुए थे। नदी की मुख्य धारा वह है जिससे आप गए थे, किन्तु यह शाखा छोटी है। ज्वार ने मुझे जब यहाँ पहुँचाया अँधेरा घिर आया था। किसी प्रकार मैं रस्सी वृक्ष में उलझाकर यहाँ रात भर टिका रहा।
और मैं। कौन-सा मैं ? जैसे उन्होंने स्वयं से प्रश्न किया। कल वाला जार्ज मूलर तो मर गया जो नास्तिक था, अविश्वासी था । उस रूप वाले मेरे सारे विचार, इच्छाएँ, स्वीकृति, सम्बन्ध आदि प्राणहीन हो गए। नाविक उनकी ओर आश्चर्य से देखे जा रहा था। बार-बार पूछने पर उन्होंने रात्रि की सारी घटना कह सुनाई। वह भी श्रद्धानत था। बता रहे थे नदी के रास्ते की खोज और मेरी रक्षा उसने की, जो सदा से असहायों की रक्षा करता आया है। जब मेरा बल थक गया, शस्त्र गिर गया वह दयाधाम आ पहुँचा। अरुणोदय का प्रकाश समूची सृष्टि को स्वर्णिम बनाने लगा था- उस दिन से इन नए जार्ज मूलर ने यूरोप और अमेरिका में घूम-घूमकर प्रार्थना का प्रचार करना शुरू किया। उनका सारा जीवन भगवतमय और दिव्य हो उठा। प्रार्थना मनुष्य को देवता बना देती है। उनके कथन का प्रमाण उनका जीवन था लोग उन्हें 'प्रार्थना मानव' के नाम से जानने लगे।
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