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आत्मज्ञान से ही मुक्ति

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  ब्रह्मसंध्या सम्पन्न कर आचार्य ज्योतिपाद उठे ही थे कि आत्मदेव ने उनके चरण पकड़ लिये। ब्राह्मण अत्यन्त दीन शब्दों में बोला - " आचार्य प्रवर - एक सन्तान की इच्छा से आपके पास आया हूँ। आप सर्वसमर्थ है , मुझे एक सन्तान प्राप्त हो जाय तो आपका जीवनभर ऋणी रहूँगा। " ज्योतिपाद ने एक क्षण के लिये दृष्टि ऊपर उठाई , मानो उनकी आत्मा कोई सत्य पाना चाहती हो — दूसरे ही क्षण वे बोले - " आत्मदेव ! सन्तान से सुख की कामना करना व्यर्थ है , मनुष्य अपने कर्मों के अनुसार सुख - दुःख पाता है , सन्तान तो अपने आप में ही एक कर्तव्य भार है , उसके हो जाने से दाम्पत्य प्रेम कम हो जाने से लेकर संसार से निर्द्वन्द्व विचरण का सारा आनन्द ही समाप्त हो जाता है। तुम व्यर्थ ही इस झंझट में मत पड़ो। ”   कहते हैं आसक्त के लिये संसार में कोई उपदेश नहीं , आत्मदेव को कोई बात समझ में नहीं आई वह मात्र सन्तान की ही कामना करता रहा। तब आचार्य ज्योतिपाद ने दूसरे ढंग से समझाय...