ब्रह्मसंध्या
सम्पन्न कर आचार्य
ज्योतिपाद उठे ही
थे कि आत्मदेव
ने उनके चरण
पकड़ लिये। ब्राह्मण
अत्यन्त दीन शब्दों
में बोला- "आचार्य
प्रवर-एक सन्तान
की इच्छा से
आपके पास आया
हूँ। आप सर्वसमर्थ
है, मुझे एक
सन्तान प्राप्त हो जाय
तो आपका जीवनभर
ऋणी रहूँगा।" ज्योतिपाद
ने एक क्षण
के लिये दृष्टि
ऊपर उठाई, मानो
उनकी आत्मा कोई
सत्य पाना चाहती
हो—दूसरे ही
क्षण वे बोले-
"आत्मदेव ! सन्तान से सुख
की कामना करना
व्यर्थ है, मनुष्य
अपने कर्मों के
अनुसार सुख-दुःख
पाता है, सन्तान
तो अपने आप
में ही एक
कर्तव्य भार है,
उसके हो जाने
से दाम्पत्य प्रेम
कम हो जाने
से लेकर संसार
से निर्द्वन्द्व विचरण
का सारा आनन्द
ही समाप्त हो
जाता है। तुम
व्यर्थ ही इस
झंझट में मत
पड़ो।”

कहते हैं आसक्त
के लिये संसार
में कोई उपदेश
नहीं, आत्मदेव को
कोई बात समझ
में नहीं आई
वह मात्र सन्तान
की ही कामना
करता रहा। तब
आचार्य ज्योतिपाद ने दूसरे
ढंग से समझाया
तात् ! तुम्हारे भाग्य में
सन्तान है नहीं।
जिसने पूर्व जन्म
में गुरु-वरण
नहीं किया, जिसने
अपनी सम्पत्ति लोक-सेवा और
दीन-दुःखियों की
सहायतार्थ दान नहीं
की वह इस
जीवन में सन्तानहीन
होता है। तात्
! पूर्व जन्म की
कृपणता का पाप
ही आज तुम्हारे
लिये सौभाग्य विमुख
बना। नीति कहती
है जाओ और
अपनी शक्ति, सम्पत्ति
और सामर्थ्य लोक-सेवा में
नियोजित करो, अब
तुम्हारी अवस्था बहुत अधिक
हो गई है।
सन्तान का कोई
औचित्य भी नहीं
रहा, यह आयु पुनर्जन्म की तैयारी
की है, सो
अब तुम अपना
समय आत्मकल्याण में
लगाओ।
आत्मदेव की समझ
में फिर भी
न आया। उसने
कहा - "महात्मन् ! आज या
तो आपसे पुत्र
लेकर लौटूंगा अन्यथा
यहीं आपके ही
सम्मुख आत्मदाह कर दूँगा
।" उसके इस
प्रकार कहने पर
आचार्य ज्योतिपाद ने हँसकर
कहा- "ब्राह्मण ! तुम्हें जो
नहीं सोचना चाहिये
वहाँ तक सोच
गये तात् ! तुम्हारे
लिये किसी और
का पुण्य छीनना
पड़ेगा, श्रेष्ठ आत्मा का
दान कोई करेगा
क्यों, ऐसे में
तो केवल अपवित्र
आत्माएँ ही हाथ
लगती है, चलो
विधाता की इच्छा
ऐसी ही है
तो लो यह
फल अपनी भार्या
को खिलाना, पुत्र
तो तुम्हारे भाग्य
में है नहीं
फिर भी तुम्हारी
इच्छा भगवान पूर्ण
करेंगे। अपनी धर्म
पत्नी से कहना
वह एक वर्ष
तक नितान्त पवित्र
रहकर नित्य कुछ
दान करे ।"
आत्मदेव, महर्षि के रहस्यमय
वचन सुनकर भी
कुछ समझ न
सका, खुशी-खुशी
घर आया, फल
उसने अपनी पत्नी
धुन्धुली को दे
दिया। सारी बातें
समझा दीं ।
धुन्धुली ने सोचा
पवित्रता मुझसे बन नहीं
पड़ेगी, अपनी सम्पत्ति
औरों को क्यों
दान करूँ। उसने
वह फल अपनी
गाय को खिला
दिया और समय
पर अपनी बहिन
का पुत्र गोद
लेकर घोषणा कर
दी मुझे पुत्र
हुआ है। ब्राह्मण
समाचार पाकर फूला
न समाया। पुत्र
का नाम धुन्धुकारी
रखा गया ।
यथा नाम तथा
गुण । धुन्धकारी
बाल्यावस्था से ही
दुराचारी निकला, उसने पिता
की सारी सम्पत्ति,
मांस, मद्यपान, जुआ
और वेश्यावृत्ति में
नष्ट कर दी।
माता-पिता कुढ़कर
मर गये ।
धुन्धुकारी भी अकाल
ही काल-कवलित
हो गया।
फल जिस गाय
को दिया गया
था उससे एक
सुन्दर आत्मज्ञानी पुत्र पैदा
हुआ- गोकर्ण ।
गोकर्ण पशुयोनि से जन्मे
होने पर भी
अध्यात्म विद्या के प्रभाव
से महान् ज्ञानी
और धर्मात्मा हुआ।
एक रात वे
सो रहे थे-
तब धुन्धकारी जो
प्रेतयोनि में पड़ा
हुआ था—बोला-
भैया आप ही
मेरा उद्धार करें।
गोकर्ण ने कहा-
"तात् ! मैंने गया श्राद्ध
कर दी फिर
भी तुम मुक्त
न हुये।” धुन्धकारी
तुम्हारी बोला- "बन्धुवर ! मनुष्य
को स्वर्ग या
मुक्ति अपने ही
कर्म से मिलती
है, जब तक
मुझे अपने दुष्कर्मों
का दण्ड नहीं
मिल जाता मुक्ति
संभव नहीं। आप
तो मुझे अध्यात्म
ज्ञान दीजिये जिससे
मैं अपना अगला
जीवन सुधार सकूँ
।” गोकर्ण ने
तब उसे भागवत्
कथा के माध्यम
से आत्म तत्व
का ज्ञान कराया
अन्त में यह
ज्ञान ही धुन्धकारी
के आत्मकल्याण का
मार्गदर्शक बना ।
धन्यवाद
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