समर्पण योग की सच्ची साधना

                             समर्पण योग की सच्ची साधना

अन्तःकरण में वैराग्य की ज्योति जलते ही महाराज हरिदास का मन राजपाठ के भोग विलास से उचटने लगा । एक अभाव सदा महसूस होने लगा कि अपने स्वरूप एवं लक्ष्य से अपरिचित रहकर जीवन का एक बड़ा भाग व्यर्थ चला गया। शेष को गँवाना उचित नहीं, यह सोचकर राज्य भार महामन्त्री को सौंपकर वे वन में कठोर तप करने के उद्देश्य से चल पड़े।

दिन बीतते गये और उसके साथ-साथ हरिदास की साधना भी प्रचण्ड होती चली गयी। चित्त की वृत्तियों के निरोध तथा मन की मलीनताओं के परिशोधन के लिए उन्होंने जप, तप एवं तितीक्षा की कठोर साधनाएँ कीं। तपाग्नि में जलकर काया अत्यन्त दुर्बल हो गयी। आत्मदेव की उपासना में शरीर का भी ध्यान न रहा, पर इन कठोर साधनाओं के बावजूद भी हरिदास का मन व्यग्र असन्तुष्ट बना हुआ था। आत्मसाक्षात्कार का लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा था। सब कुछ निराशाजनक और प्रयत्न निष्फल जान पड़ रहे थे।

साधना की तन्द्रा की स्थिति में भीतर से आवाज आयी- सबसे मूल्यवान वस्तुओं का समर्पण कर, तुझे लक्ष्य की प्राप्ति होगी। महाराज संशय में पड़े सर्वाधिक मूल्यवान चीजें कौन-कौन-सी हैं। वापस राज-दरबार लौटे। राजपुरोहित, महामन्त्री तथा प्रधान सेनापति को अविलम्ब परामर्श के लिए बुला भेजा। उनके आते ही संशय प्रकट करते हुए तीनों से जानना चाहा कि मनुष्य के लिए सबसे मूल्यवान कौन-कौन-सी चीजें हैं। राजपुरोहित ने शास्त्र को सर्वोपरि महत्त्व दिया, सेनापति ने शस्त्र को तथा महामन्त्री ने सत्ता को। राजा हरिदास को लगा जैसे समाधान मिल गया हो ।

शास्त्र के प्रतीक महाभारत को शस्त्र के प्रतीक तलवार को तथा सत्ता के प्रतीक राज मुकुट के समर्पण का राजा ने संकल्प लिया। बुद्धिबल, शस्त्रबल तथा धन बल की तीनों शक्तियों को अपने इष्ट के समक्ष उत्सर्ग का निर्णय लेकर वे पुनः मुदित मन से तप करने चल पड़े । भीतर के अहम् ने गर्व से कहा सर्वस्व इष्ट के चरणों में अर्पित कर दिया गया। पर त्याग का यह अहंकार अधिक समय तक सन्तोष न दे सका । साधना से जिस आत्म सन्तोष, शान्ति एवं आनन्द की अनुभूति होनी चाहिए, हरिदास का अन्तःकरण कोसों दूर था । पहले की अपेक्षा मन की व्याकुलता और भी बढ़ी। समर्पण में कहाँ, किस तरह की गलती रह गयी है, राजा को यह नहीं सूझ रहा था ?

अन्तःकरण के कोने से पुनः आवाज आयी "मूर्ख ! तूने भौतिक चीजों का तो समर्पण किया पर अपने अहम् को छाती से चिपकाये हुए है। अहम् के रहते समर्पण पूरा नहीं हो सकता। इष्ट के प्रति भावनाओं का आरोपण नहीं हो पाता। अपने अहं को विगलित कर । जा दीन-दुःखियों की सेवा कर, उनके दुःखों में हिस्सा बँटा। उनमें ही अपना रूप देख । तेरी साधना सफल होगी।"

राजा को अपनी भूल मालूम हुई। जप, तप के साथ-साथ उस दिन से उन्होंने सेवा को भी साधना का अनिवार्य अंग माना। पीड़ितों की सेवा से अहं विगलित हुआ, आत्म विस्तार का अवरुद्ध मार्ग खुल गया। धीरे-धीरे आत्म सत्ता की प्रकाश किरणें भी अन्तःकरण में झिल-मिलाने लगीं। उस पावन आलोक में हरिदास ने सर्वत्र अपनी सत्ता को ही एक अखण्ड रूप में क्रीड़ा कल्लोल करते देखा। अन्तस् का तमसु सच्ची समर्पण योग की साधना से जाता रहा, अवतरित दिव्य प्रकाश के आलोक ने हरिदास के समूचे व्यक्तित्व का कायाकल्प कर दिया। अब वे राजा हरिदास नहीं, तत्व ज्ञानी हरिदास थे

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