निर्भयता और साहस की सिद्धि

 




दो हजार वर्ष पहले की बात है कि उज्जयिनी नगरी में एक युवक रहता था वह रूप गुण सम्पन्न थापर उसे एक दमड़ी की भी आमदनी नहीं होती थी। वह गर्भ दरिद्र थातो भी वह स्वभाव से पराक्रमी और साहसी था। गरीबी की कठोर ठोकरें खाने पर भी उसने कभी नीति का त्याग नहीं किया था। जब अनेक प्रयत्न करने पर भी उसे स्वदेश में सफलता  मिल सकीतो एक भट्टमात्र नामक सच्चे मित्र को लेकर परदेश को रवाना हो गया।

 उस समय एक ऐसी जनश्रुति थी कि दक्षिण भारत का रोहणाचल पर्वत दरिद्रता के कष्टों का अन्त कर देता है ये दो मित्र कुछ ऐसे ही विचार से उसी तरफ चले गये और कितने ही जंगलों, नदियों, पहाड़ों और ग्रामों को पार करते रोहणाचल के पास अवस्थित प्रवर नामक गाँव में जा पहुँचे और वहाँ एक कुम्हार के घर में ठहर गये।

 उस रात्रि को कुम्हार के घर में विश्राम करके प्रातःकाल वे रोहणांचल की तरफ चलने को उद्यत हुए। उस समय भट्टमात्र ने कुम्हार से एक कुदाली माँगी कुम्हार ने उनका आशय जानकर कहा कि "हमारे देश में ऐसा चमत्कारपूर्ण रिवाज है कि यदि सबेरे के समय कोई दरिंद्र मनुष्य ईश्वर का स्मरण कर खान (वह जगह जहां पर कोयला या अन्य धातुओं की खुदाई की जाती है) के पास जाकर खड़ा हो जाय और कपाल(सर या माथा) पर हाथ लगाकर दुखी आवाज  में "हे देव !", "रे नसीब" ऐसा कह कर कोदाली या फावड़ा खान में मारे तो उसमें से उसकी योग्यता के अनुसार रत्न उसको मिल जाते हैं।"

 भट्टमात्र ने इस रहस्य को भली प्रकार समझ तो लिया, पर अपने स्वाभिमानी मित्र से ऐसा करने के लिए कहने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। तब उसने एक तरकीब सोची और जब मित्र युवक कुदाली उठाकर खान में मारने को तैयार हुआ तो एकाएक उसने कहा- "अपने देश का एक यात्री कल मिला था " "तो ?" यह कहते हुए मित्र ठहर गया। "अच्छा" मित्र युवक सुनने को उत्सुक हो गया

"उससे आपके परिवार का कुशल समाचार पूछा " "उसने आपकी पूज्य माताजी के देहावसान का समाचार सुनाया।"

भट्टमात्र के शब्दों को सुनते ही उसके मुख में से एक गहरा निःश्वास निकला "हा दैव " इसके साथ स्वभावतः माथा मायापीटने के लिए हाथ चलाते हुए उसकी कुदाली भी खान में गिर गई। उसी समय खान में से सवा लाख रु. का एक सुन्दर रत्न निकला। उसे भट्टमात्र ने उठा लिया और दोनों मित्र घर वापस चले आये।

 अपने मिंत्र को मातृ-वियोग के दुख से शोकपूर्ण देखकर भट्टमात्र ने उसे वास्तविक बात कह दी और अपनी चालाकी के लिए क्षमा याचना की। यह सुनकर उसका मित्र रक्त जोश में गया और उसने मित्र को "लोभी भट्ट" कहकर फटकारा और वह तुरन्त रत्न को लेकर खान की तरफ दौड़ा भट्ट को यह सुझाई भी पड़ा कि इस अवसर पर वह क्या करे कि इतने में युवक ने खान पर पहुँचकर रत्न खान में फेंक दिया और कहा- "दारिद्र-दुःख को मिटाने वाले रोहण पर्वत तुझे धिक्कार है, जो दीन-दुःखियों से पहले पिटवाकर हा दैव" ऐसा निकलवा लेता है।" पर्वत को इस प्रकार बोल कर वह वापस गया।

 

भटकते-भटकते युवक फिर अपने देश में पहुँचा, उज्जयिनी की सीमा में प्रवेश करते ही उसे ढोल की आवाज सुनाई दी। जल्दी से पास जाकर पूछताछ करने पर पता लगा कि राजा के निःसन्तान मर जाने से मन्त्रीगण नया राजा तालाश कर रहे हैं। युवक इसके लिए तुरन्त तैयार हो गया, पर उसकी भोलेपन पर तरस खाकर किसी दर्शक ने उसे इस बात का वास्तविक मर्म को समझाया "मेरे भाई, यह तो लोहे के चने हैं। तुम्हारे जैसे अनजान मनुष्य लोभ में आकर फँस जाते हैं, पर वे पहली रात को ही मारे जाते हैं। कोई राक्षस या भूतपिशाच रात्रि के समय उसका संहार कर डालता है। इसलिए हमको नित्य प्रति एक राजा ढूँढना पड़ता है। अब तो लोग इस बात को जान गये हैं और एक दिन के लिए राजा बनने को कोई तैयार नहीं होता। तुम्हारे भोलेपन की वजह से मैंने तुम्हें सारी बात बतला दी "

उत्तर में युवक ने जरा मुसकरा दिया। उसका विशाल वक्षस्थल ऊँचा हो गया, नेत्र अधिक तीव्र हो गये; उसकी समस्त मुख मुद्रा दैदीप्यमान हो उठी। वह ढिंढोरा पीटने वाले अधिकारी के साथ निर्भयतापूर्वक ढिंढोरा पीटने वाले राजसभा में पहुँचा और वहाँ मन्त्रियों ने "शुभस्य शीघ्रम्सिद्धान्त के अनुसार उसी समय उसका राज्याभिषेक कर दिया।

 फिर एकान्त मिलने पर नये राजा ने सोचा कि वह आदमी जैसा कहता था इस राज्य पर अवश्य ही किसी देव या दानव का रोष उतरा है; वही प्रतिदिन राजा को खा जाता है। इसलिए भक्ति या शक्ति से उसे राजी कर लेना चाहिए

 ऐसा सोचकर उसने बहुत-सी बहुत-सी उत्तम मिठाईयाँ मँगवायी और राजमहल के ऊपर के कमरे में सुन्दर ढंग से सजाकर रख दीं। साथ में इत्र, पान, माला आदि वस्तुएँ भी मँगवा कर रख दीं। फिर राजा के बहुमूल्य पलंग पर कोमल रेशमी शय्या बिछाकर अपना बहुमूल्य साफा तकिया

के सहारे रख दिया। यह सब तैयारी करके तलवार हाथ में लेकर वह अँधेरे कोने में छुप गया। उसकी एक-एक घड़ी युग के समान बीत रही थी पर उसमें बड़ा धैर्य था और वह बराबर मुस्तैदी के साथ अपने स्थान पर खड़ा रहा।

 इतने में आधी रात का समय हुआ और धुएँ के बादल खिड़की में होकर भीतर आने लगे। उसने उसके पीछे धधकती ज्वाला भीतर आती दिखलाई दी। फिर एक महा भयंकर पुरुष दिखलाई पड़ा। उसकी आँखों से मानो आग निकल रही थी, चेहरा अत्यन्त विकराल था। समस्त शरीर मोटे और लम्बे बालों से ढका हुआ था। जब वह पलंग के पास पहुँचा और उसने तमाम सामग्री को वहाँ रखे देखा तो जोर से अट्टहास कर उठा। उस आगन्तुक ने सब मिठाईयाँ खा डाली, सुगन्धित वस्तुएँ बदन में लगा ली, पान का बीड़ा मुख में रख लिया। तब वह पलंग पर बैठ गया और कहने लगा-

 

"हे मृत्युलोक के मनुष्य, मैं स्वर्ग के राजा इन्द्र का अग्नि बेताल नाम का द्वारपाल हूँ। यहाँ हर रोज मैं एक-एक का संहार करता हूँ। तेरी भक्ति को देखकर तुझे अभय प्रदान करता हूँ, परन्तु शर्त यह है कि आज की जितनी सामग्री हर रोज मुझको देनी पड़ेगी।"

 

चतुर राजा ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन अपने नए राजा को राजी-खुशी और प्रसन्न बदन देखकर मन्त्रियों को आश्चर्य हुआ और प्रजा ने हर्ष से उत्सव मनाया। राजा भी अपने देश की समृद्धि और उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहने लगा

 

इस प्रकार दिन बीतने लगे। हर रोज रात्रि के समय चतुर राजा बेताल को भोजन कराता और फिर दोनों में आगम-निगम की बातें होती। इस प्रकार दोनों में मित्रता उत्पन्न हो गई। एक बार राजा ने बेताल से अपनी आयु पूछी। बेताल ने कहा- "भाई, मुझे तो इसकी खबर नहीं है, पर मैं अपने स्वामी से पूछकर कल बतला दूँगा।" दूसरी रात्रि को उसने बतलाया कि इन्द्रदेव ने आपकी आयु पूरी सौ वर्ष की बतलाई है।

 राजा ने कहा, "इसमें कुछ परिवर्तन हो सके तो ठीक है।"

 वैताल ने कहा-"यह कैसे संभव है ?"

 राजा ने हठ पकड़ ली—- "तुम तो हमारे पक्के मित्र हो और तुम्हारा देवताओं के राजा के साथ इतना निकट संबंध है, तो क्या तुम इतना भी काम नहीं कर सकते महेन्द्र तो जो चाहे कर सकता है। मैं कुछ ज्यादा नहीं माँगता, वह मेरी आयु में केवल एक वर्ष बढ़ा दे या घटा दे। अगर आप इतना कार्य नहीं कर सकते तो आपकी इतनी शक्ति का क्या लाभ ?"

 

राजहठ के सामने बेताल को हार माननी पड़ी और दूसरे दिन उसकी इच्छा पूर्ण करने को कहा, पर दूसरी रात्रि को जब वह आया तो उसने राजा को बतलाया

 

"हे मित्र, महेन्द्र ने तो साफ इनकार कर दिया। उसने तो निश्चयपूर्वक कह दिया कि यह कार्य कोई भी देवता नहीं कर सकता "

बस अब राजा चेताल के भय से निर्मय हो गया। दूसरे दिन राजा ने उसकी भोजन-सामग्री बन्द कर दी और युद्ध करने को तैयार हो गया। जब बेताल ने यह दशा देखी तो वह क्रोधित होकर राजा को खाने के लिए दौड़ा, पर राजा ने निडरता के साथ उसका मुकाबला किया और दोनों में बड़ी देर तक द्वन्द्व युद्ध होता रहा। उससे पृथ्वी हिल उठी, पक्षी तथा अन्य प्राणी व्याकुल हो उठे, वायुदेव भी एक प्रकार से स्थगित हो गये, आकाश भी मानो कॉप जठा।

 


कहाँ विकराल बेताल और कहाँ एक साधारण नवयुवक राजा को मसल डालना उसे चबा जाना तो उसके लिए एक खेल था, परन्तु अदृष्ट का पता किसी को नहीं लगता। अन्तिम विजय तो सत्य, न्याय और निर्मलता की ही होती है वीर राजा ने अपने पूर्व सत्कार्यों और अन्तशुद्धि के प्रभाव से भयंकर शब्द के साथ बेताल को पृथ्वी पर दे मारा और उसके विशाल वक्षस्थल पर जोर के साथ पैर रखकर खड़ा हो गया और कहा-"अब तू अपने इष्टदेव का स्मरण कर ले सदा दुष्कृत्यों में रहने वाले और अनेकों का खून पीने वाले बेताल का साहस जब जाता रहा और वह बोल उठा

 सन्तोष हे राजा ! तेरे इस अद्भुत साहस मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ। आज तूने एक बड़ी सिद्धि प्राप्त की है। मैं अग्नि बेताल तेरा आज्ञाकारी बन गया हूँ। तू जिस समय जो कार्य करने को कहेगा, उसे मैं तुरन्त पूरा करूंगा

 निडर राजा ने अपना चरण बेताल के ऊपर से हटा लिया, उसे अपने हाथ से उठाकर बैठाया और उसकी पीठ थपथपाई तब से यह उनका अनुयायी बन गया। अजेय समझे जाने वाले वीर बेताल पर विजय प्राप्त करके उस पराक्रमी राजा ने सच्चे अर्थों में वीर के गौरवयुक्त पद को प्राप्त किया।

 इस महा-पराक्रमी राजा को कौन नहीं जानता ? वह और कोई नहीं, वही है जिसने समस्त राष्ट्र का अभ्युदय साधकर २०१६ वर्ष पूर्व अपना संवत्सर स्थापित किया था। वह है भारतवर्ष के श्रेष्ठ प्रथम श्रेणी के राष्ट्रवीरों में शोभा पाता हुआ पर दुःख भंजन राजा वीर विक्रमादित्य

                     धन्यवाद 

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