निर्भयता और साहस की सिद्धि
दो हजार वर्ष पहले की बात है कि उज्जयिनी नगरी में एक युवक रहता था वह रूप गुण सम्पन्न था, पर उसे एक दमड़ी की भी आमदनी नहीं होती थी। वह गर्भ दरिद्र था, तो भी वह स्वभाव से पराक्रमी और साहसी था। गरीबी की कठोर ठोकरें खाने पर भी उसने कभी नीति का त्याग नहीं किया था। जब अनेक प्रयत्न करने पर भी उसे स्वदेश में सफलता न मिल सकी, तो एक भट्टमात्र नामक सच्चे मित्र को लेकर परदेश को रवाना हो गया।
"उससे आपके परिवार का कुशल समाचार पूछा " "उसने आपकी पूज्य माताजी के देहावसान का समाचार सुनाया।"
भट्टमात्र के शब्दों को सुनते ही उसके मुख में से एक गहरा निःश्वास निकला "हा दैव " इसके साथ स्वभावतः माथा मायापीटने के लिए हाथ चलाते हुए उसकी कुदाली भी खान में गिर गई। उसी समय खान में से सवा लाख रु. का एक सुन्दर रत्न निकला। उसे भट्टमात्र ने उठा लिया और दोनों मित्र घर वापस चले आये।
भटकते-भटकते युवक फिर अपने देश में आ पहुँचा, उज्जयिनी की सीमा में प्रवेश करते ही उसे ढोल की आवाज सुनाई दी। जल्दी से पास जाकर पूछताछ करने पर पता लगा कि राजा के निःसन्तान मर जाने से मन्त्रीगण नया राजा तालाश कर रहे हैं। युवक इसके लिए तुरन्त तैयार हो गया, पर उसकी भोलेपन पर तरस खाकर किसी दर्शक ने उसे इस बात का वास्तविक मर्म को समझाया "मेरे भाई, यह तो लोहे के चने हैं। तुम्हारे जैसे अनजान मनुष्य लोभ में आकर फँस जाते हैं, पर वे पहली रात को ही मारे जाते हैं। कोई राक्षस या भूतपिशाच रात्रि के समय उसका संहार कर डालता है। इसलिए हमको नित्य प्रति एक राजा ढूँढना पड़ता है। अब तो लोग इस बात को जान गये हैं और एक दिन के लिए राजा बनने को कोई तैयार नहीं होता। तुम्हारे
भोलेपन की वजह से मैंने तुम्हें सारी बात बतला दी "
उत्तर में युवक ने जरा मुसकरा दिया। उसका विशाल वक्षस्थल ऊँचा हो गया, नेत्र अधिक तीव्र हो गये; उसकी समस्त मुख मुद्रा दैदीप्यमान हो उठी। वह ढिंढोरा पीटने वाले अधिकारी के साथ निर्भयतापूर्वक ढिंढोरा पीटने वाले राजसभा में पहुँचा और वहाँ मन्त्रियों ने "शुभस्य शीघ्रम्” सिद्धान्त के अनुसार उसी समय उसका राज्याभिषेक कर दिया।
के सहारे रख दिया। यह सब तैयारी करके तलवार हाथ में लेकर वह अँधेरे कोने में छुप गया। उसकी एक-एक घड़ी युग के समान बीत रही थी पर उसमें बड़ा धैर्य था और वह बराबर मुस्तैदी के साथ अपने स्थान पर खड़ा रहा।
"हे मृत्युलोक के मनुष्य, मैं स्वर्ग के राजा इन्द्र का अग्नि बेताल नाम का द्वारपाल हूँ। यहाँ हर रोज मैं एक-एक का संहार करता हूँ। तेरी भक्ति को देखकर तुझे अभय प्रदान करता हूँ, परन्तु शर्त यह है कि आज की जितनी सामग्री हर रोज मुझको देनी पड़ेगी।"
चतुर राजा ने इस शर्त को स्वीकार कर लिया। दूसरे दिन अपने नए राजा को राजी-खुशी और प्रसन्न बदन देखकर मन्त्रियों को आश्चर्य हुआ और प्रजा ने हर्ष से उत्सव मनाया। राजा भी अपने देश की समृद्धि और उन्नति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहने लगा ।
इस प्रकार दिन बीतने लगे। हर रोज रात्रि के समय चतुर राजा बेताल को भोजन कराता और फिर दोनों में आगम-निगम की बातें होती। इस प्रकार दोनों में मित्रता उत्पन्न हो गई। एक बार राजा ने बेताल से अपनी
आयु पूछी। बेताल ने कहा- "भाई, मुझे तो इसकी खबर नहीं है, पर मैं अपने स्वामी से पूछकर कल बतला दूँगा।" दूसरी रात्रि को उसने बतलाया कि इन्द्रदेव ने आपकी आयु पूरी सौ वर्ष की बतलाई है।
राजहठ के सामने बेताल को हार माननी पड़ी और दूसरे दिन उसकी इच्छा पूर्ण करने को कहा, पर दूसरी रात्रि को जब वह आया तो उसने राजा को बतलाया
"हे मित्र, महेन्द्र ने तो साफ इनकार कर दिया। उसने तो निश्चयपूर्वक कह दिया कि यह कार्य कोई भी देवता नहीं कर सकता "
बस अब राजा चेताल के भय से निर्मय हो गया। दूसरे दिन राजा ने उसकी भोजन-सामग्री बन्द कर दी और युद्ध करने को तैयार हो गया। जब बेताल ने यह दशा देखी तो वह क्रोधित होकर राजा को खाने के लिए दौड़ा, पर राजा ने निडरता के साथ उसका मुकाबला किया और दोनों में बड़ी देर तक द्वन्द्व युद्ध होता रहा। उससे पृथ्वी हिल उठी, पक्षी तथा अन्य प्राणी व्याकुल हो उठे, वायुदेव भी एक प्रकार से स्थगित हो गये, आकाश भी मानो कॉप जठा।
कहाँ विकराल बेताल और कहाँ एक साधारण नवयुवक राजा को मसल डालना उसे चबा जाना तो उसके लिए एक खेल था, परन्तु अदृष्ट का पता किसी को नहीं लगता। अन्तिम विजय तो सत्य, न्याय और निर्मलता की ही होती है वीर राजा ने अपने पूर्व सत्कार्यों और अन्तशुद्धि के प्रभाव से भयंकर शब्द के साथ बेताल को पृथ्वी पर दे मारा और उसके विशाल वक्षस्थल पर जोर के साथ पैर रखकर खड़ा हो गया और कहा-"अब तू अपने इष्टदेव का स्मरण कर ले सदा दुष्कृत्यों में रहने वाले और अनेकों का खून पीने वाले बेताल का साहस जब जाता रहा और वह बोल उठा
धन्यवाद
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