साहस को रास्ते हजार
भाई परमानन्द क्रान्तिकारियों में अप्रतिम साहस के लिए प्रसिद्ध थे। कैसी भी संकटपूर्ण घड़ी में भी उन्होंने भयभीत होना नहीं सीखा था इसीलिये कई बार वह ऐसे काम कर लाते थे जो और कोई भी बुद्धिमान क्रान्तिकारी नहीं कर पाता था। साहस को इसी से तो मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी योग्यता कहा गया है। हिम्मत न हो तो बड़ी-बड़ी योजनायें धरी की धरी रह जाती हैं। पर साहसी व्यक्ति रेत में भी फूल उगा लाता है।
बम बनाने की योजना बनाई गई। विस्फोटक पदार्थ आदि और सब सामान तो जुटा लिया गया पर बर्मों के लिए लोहे के खोल (शेल) कहाँ से आयें यह एक समस्या थी। ऐसी घड़ी में भाई परमानन्द को याद किया गया । बड़ी देर तक विचार करने के बाद उन्होंने एक योजना बना ही डाली। काम था जोखिम का पर "हिम्मते मरदां मददे खुदा" वाली कहावत सामने थी, भाई परमानन्द ने अमरसिंह को साथ लिया और वहाँ से चल पड़े।
उन्होंने अमरसिंह को सारी योजना समझाई। अमरसिंह को एकाएक तो विश्वास नहीं हुआ कि अंग्रेजों को चकमा देकर बर्मों के खोल कैसे बनवाये जा सकते हैं ? पर वह परमानन्द की हिम्मत को जानते थे, इसलिये साथ-साथ जीने मरने के लिए तैयार हो गये। अगले ही क्षण वे एक लोहा फैक्ट्री के अँग्रेज मैनेजर के सामने खड़े थे।
सब कुछ स्वाभाविक तरीके से ही हो सकता था। बात-चीत से लेकर हाव-भाव तक नकली बात तभी चल सकती थी जब वह पूरी हिम्मत के साथ बयान की गई हो। थोड़ा भी सकपका जाने या अस्वाभाविक प्रतीत होने पर तुरन्त गिरफ्तार होने का भय था, सो तो था ही एक बड़ी भारी योजना के विफल हो जाने का अपयश भी था।
परमानन्द भाई नकली माली और अमरसिंह मजदूर बनकर गये, अँग्रेज मैनेजर से बोले- साहब सर सुन्दरसिंह मजीठिया के बगीचे को सजाने के लिए लोहे के खम्भे लगाये गये हैं। आपने देखा ही होगा हमारे साहब की इच्छा है कि उनके ऊपर लोहे के गुम्बज लगाये जायें ताकि शोभा और बढ़े ?
सर सुन्दरसिंह मजीठिया हिन्दुस्तानी पर अँग्रेजी— "सर" की उपाधि प्राप्त साहब बहादुर, भला इनकार कैसे करते बोले, "कितने खोल चाहिये ?" हिसाब लगाने में जरा भी कमअकली से अँग्रेज मैनेजर को सन्देह हो सकता था। साहस की यही तो पहचान है कि हृदय और मुख में जरा शिकन न आये। भय बिलकुल पास भी न फटके ।
"यही २ हजार आवश्यक होंगे।" नकली माली बने परमानन्द ने कहा। अफसर थोड़ा चौका तो परमानन्द के साहस ने सब कुछ ढाँप लिया। आर्डर तय हो गया। एक सप्ताह में खोल बन जाने की साई तय हो गई।
ठीक एक सप्ताह बाद उसी तरह बर्मों के खोल ले आये और मैनेजर साहब को कुछ भी भान न हुआ। वह तो कभी भी पता न चलता यदि कुछ क्रान्तिकारी बन्दी न प्रेरणाप्रद दृष्टान्त बना लिये जाते और उनके साथ बर्मों की बात का भंडा फोड़ न हो जाता।
मुकदमा चला। कचहरी में अँग्रेज मैनेजर भी उपस्थित हुआ। उसने अपनी भूल तो स्वीकार कर ली पर यह कहे बिना वह भी न रहा- "परमानन्द सचमुच गजब का साहसी है मुझे भी धोखा दे गया।"
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