निर्भयता अपराजेय है



"साधुओं में से एक ने सेनापति से पूछा।"आप सब कहाँ जा रहे हैंपंचनद के ये बहुमूल्य घोड़ेहाथी और खजाना किसकी भेंट के लिए जा रहा है ? सैनिकों के बुझे चेहरेसेनापति का मलिन मुख सेना की यह मौन यात्रा सब कुछ विचित्र लगा। कहाँ तो पंचनद की विजयवाहिनी रण-वार्थो का घोष करते हुए निकला करती थीचारों ओर विजय का उल्लास फैलता दिखता था। और आज ?


कोई आगे कुछ सोचे, इसके पहले महासेनापति ने कातर स्वर से कहा- "भगवन् ! महाराज देवदर्शन की आज्ञा से हम सिकन्दर के लिए सन्धि प्रस्ताव लेकर जा रहे हैं। सैनिकों की इच्छा के विरोध में महाराज का असामयिक निर्णय जँचा नहीं पर हम विवश हैं, क्या करें ?"

साधुजन तड़प उठे, बोले-" तुम आर्यावर्त के एक सेनापति होकर ऐसा बोल रहे हो। विवशता कायरों का शब्द है उसे मुख पर लाने से पहले तुमने राजद्रोह कर दिया होता तो तुम यशस्वी होते, सैनिक संख्या नहीं समर्थता विजय पाती है। तुम यह भूलो कि हमारे देश के नागरिक संयमित और सदाचारी जीवन यापन करते हैं। इसलिए उनकी शक्ति का लोहा लेना सिकन्दर के लिए भी कठिन है। पराधीन जीवन जीने से पहले तुम शहीद हो गए होते तो देश के मस्तक पर कलंक का टीका लगने का अवसर तो आता। जाओ, जब तक इस देश का ब्राह्मण जीवित है, तब तक राज्य पराजय स्वीकार नहीं कर सकता। तुम यह उपहार लेकर लौट जाओ। सिकन्दर से सन्धि नहीं युद्ध होगा, और यह निमन्त्रण हम लेकर जाएँगे।"

 

सेनापति, सैनिकों की टुकड़ी के साथ लौट गए। सभी को जैसे मन माँगी मुराद मिली। उन सबका दमित शौर्य उल्लास बनकर चेहरों पर चमकने लगा। एक साधु सिकन्दर को युद्ध की चुनौती देने चला, शेष ने प्रजाश को जाग्रत करना प्रारम्भ किया। देखते-देखते जनशक्ति हथियार बाँधकर खड़ी हो गई। देवदर्शन को भी अब युद्ध के अतिरिक्त कोई मार्ग दिखा। सारे राज्य में रण-भेरी बजने लगी।

 साधु सिकन्दर को सन्धि के स्थान पर युद्ध का निमन्त्रण दे, इससे पूर्व गुप्तचर ने सारी बात उस तक पहुँचा दी। यूनान-सम्राट क्रोधित हो उठा। उसने साधु के वहाँ पहुँचने से पूर्व ही बन्दी बनाकर कारागार में डलवा दिया। उसके बाद अन्य तीन साधुओं को भी उसने छलपूर्वक पकड़वाया

अगले दिन सिकन्दर का दरबार सजाया गया। ऐश्वर्य प्रदर्शन के सारे सरंजाम इकट्ठे थे। सर्वप्रथम बन्दी बनाए गए साधु की प्रशंसा करते हुए सम्राट ने कूटनीतिक दाँव फेंकते हुए कहा- "आचार्य ! आप इन सबमें वीर और विद्वान हैं। आप हमारे निर्णायक नियुक्त हुए। शेष तीन साधुजनों से हम तीन प्रश्न करेंगे, इनके उत्तर आप सुनें "

 एक साधु की ओर संकेत करते हुए सिकन्दर ने प्रश्न किया- तुमने प्रजा को विद्रोह के लिए क्यों भड़काया ?" "इसलिए कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति की सुरक्षा, हमारे स्वाभिमान से अनुबद्ध है। इस देश के नागरिक स्वाभिमान का परित्याग करने की अपेक्षा मर जाना अच्छा समझते हैं। देश की रक्षा हमारा धर्म है"

 सिकन्दर ने दूसरा प्रश्न किया- "जीवन और मृत्यु में अधिक श्रेष्ठ कौन है ?"

 "दोनों"- साधु ने उत्तर दिया। जब तक कठिन परिस्थितियों में भी भय नः व्याप्त हो, जीवन श्रेष्ठ है। किन्तु दुष्कर्म करने से पहले मृत्यु हो जाय तो वह जीवन से अच्छी "

 "संसार में जीवित मनुष्य अधिक है या मृतक ?" सिकन्दर का तीसरा प्रश्न था

 "जीवित" तीसरे साधु ने उत्तर दिया। "मृत्यु तो क्षणिक-दुर्घटना मात्र है जिसके बाद या तो जीवन रहता

ही नहीं या रहता है, तो भी जीवित आत्माओं की संख्या में ही आता है।"

 इससे पूर्व कि सिकन्दर अपना कोई निर्णय दे, साधुओं की निडरता देखकर सिकन्दर के सैनिकों ने युद्ध करने से ही इनकार कर दिया।

 वातावरण में एक पल को घनीभूत हो गई स्तब्धता पर आघात करते हुए प्रथम साधु दण्डायन ने निर्णय के स्वर में कहा- "निर्भयता-अपराजेय है।" वह और उसके तीनों शिष्य एक ओर चल पड़े। अपने सैनिकों के हठ भरे आग्रह के सामने झुककर सिकन्दर लौट चलने की व्यवस्था बना रहा था।

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