विचार पूर्वक कार्य करने का शुभ परिणाम


 गंगा के पवित्र तट पर एक गुरुकुल स्थापित था, जिसमें एक ऋषि कुटुम्ब निवास करता था। ऋषिराज महाज्ञानी, महापवित्र, महातपस्वी थे और इनके चरणों में बैठकर विद्याभ्यास करने के लिये दूर-दूर के विद्यार्थी आया करते थे। इन ऋषिराज को एक बालक बहुत बड़ी आयु में प्राप्त हुआ। इसलिये उसका लाड़-दुलार कुछ अधिक किया जाता था। बालक-सुन्दर था और उसे सब प्यार करते थे। उसमें बालकपन से ही बाप के ज्ञान, तप और विद्या के चिन्ह दिखलाई पड़ते थे।

पर बालक बड़ा विचित्र था और उसकी विचित्र बातों को देखकर ऋषिराज को कभी-कभी बड़ी चिन्ता हो जाती थी। इस बालक को आरम्भ ही से प्रत्येक विषय में सर्वग्राही विचार करने की आदत थी। वह नदी में नहाने जाता, पर नहाते समय विचार करने लगता कि नदी में पानी कहाँ से आया ? क्यों आया ? आने का कारण क्या है ? वह नहाने की बात तो भूल जाता और इस प्रकार के अनेक तर्क-वितर्कों में डूब जाता। वह किसी के सामने अपने विचारों को प्रकट करके इन बातों को समझ लेना पसन्द नहीं करतावरन् स्वयं ही इन पर लगातार मनन करता रहता।

इसके साथी अन्त में कहते- "चलें भाई घर लौटने का समय हो गया, जल्दी से नहा लें।" तब इसका ध्यान भंग होता और वह झटपट स्नान कर लेता वह सूर्य को देखता, चन्द्रमा को देखता, हवा को चलते अनुभव करता, पेड़ के पत्तों को हिलते देखता और इन सबका कारण सोचता रहता

ऋषि बहुत बार उससे पूछते– “अरे बेटा, तू ऐसे किन गम्भीर विचारों में डूबा रहता है ? तुझे जिन प्रश्नों का उत्तर जानना हो मुझे बतला मैं तुझे समझा दूँगा " इसी प्रकार जब वह भोजन करते-करते विचारों में तन्मय हो जाता तो उसकी माता कहती "बेटा, अभी तो तू बहुत छोटा है ! अभी से ऐसे विचार क्यों करता है ? भली

प्रकार भोजन कर ले पर बालक किसी से कुछ नहीं कहता। वह बहुत कम बोलता था, बहुत कम दूसरों से मिलता-जुलता था अधिकतर वह विचार ही किया करता था। यह देखकर अनेक लोग कहते थे कि वह पूर्वजन्म का कोई महाजीव है, जिसे किसी साधारण त्रुटि के कारण जन्म लेना पड़ा है एक बार अकथनीय घटना हो गई। ऋषिराज ने पानी माँगा। ऋषि पत्नी वस्त्र बदल रही थी, इसलिये पानी लाने में विशेष विलम्ब हो गया। ऋषि को क्रोध गया और वे तपस्वी धर्म के पवित्र नियमों को भूल गये। क्रोध में उचित-अनुचित का ध्यान भी रहा। उनको ऐसा लगा कि उनकी पत्नी उनकी आज्ञा का पालन नहीं करती। क्रोधावेश में वे ऐसे जोर से चिल्लाये कि सारा आश्रम थर्रा उठा। आँखें और मुख लाल हो गये। वे पुत्र के पास आये और उसके हाथ में एक कुल्हाड़ी देकर बोले-"बेटा, अगर तू मेरा बालक हो तो इसी समय अपनी माँ का सिर इससे काट डालना " यह कहकर वे एकदम जंगल में चले गये।

क्रोध के वशीभूत होकर पिताजी ने माता की हत्या करने की आज्ञा दे दी। वह उस आज्ञा का पालन करे तो दोषी ठहराया जाय ! पर सामने निरपराधी, निर्दोष, प्रेम और वात्सल्य की मूर्ति माँ थी। "क्या माँ को मारा जा सकता है ?" यह प्रश्न उसके मन में उत्पन्न हुआ। माँ ने जन्म दिया, दुःख सहन करके पालन किया, वात्सल्य और प्रेम की धारा बहाई, ऐसी माँ को कैसे मारा जाय ? मारूँ तो निर्दोष माता का हत्याकारी कहलाऊँ और जो मारूँ तो पितृ आज्ञा की अवहेलना करने वाला ठहराया जाऊँ।

बालक विचारों में डूब गया। पिता की दी हुई कुल्हाड़ी हाथ में ही रह गई। आश्रम के द्वार पर बैठा-बैठा वह विचार तरंगों में बह गया।बालक को इस समस्या पर विचार करते-करते बहुत समय व्यतीत हो गया, पर वह अभी तक कोई निर्णय कर सका। उधर जंगल में बहुत दूर चले जाने पर ऋषिराज का क्रोध क्रमशः शान्त हुआ और वे समस्त घटना पर पुनः विचार करने लगे। अब उनको अनुभव हुआ कि उन्होंने एक बहुत बड़ी भूल कर डाली है। उनकी पत्नी ने कोई ऐसा अपराध नहीं किया था, जिसके बदले में उसको सिर काट डालने का दण्ड दिया जाता। अब उनके मन में बार-बार यही ख्याल आने लगा कि यह तो बड़ा भारी अन्याय हो गया, अब इसका क्या प्रतिकार किया जाय ? रह-रहकर उनको पत्नी के प्रेम, उदारता, सेवा की याद आने लगी। वे बड़े व्याकुल हो गये।

फिर उनको पुत्र को ध्यान आया कि मैंने उसे माता का सिर काटे डालने की आज्ञा दी थी। पर वह तो बड़ा विचार करने वाला बालक है। कदाचित् वह अभी तक इस समस्या पर पूरी तरह से विचार ही कर चुका हो और उसने अपनी माता को मारा हो

आशा की एक किरण दिखलाई दी और उसके प्रकाश में ऋषिराज पागल की तरह आश्रम की तरफ भागे। उन्होंने वहाँ पहुँचकर देखा कि आश्रम की काया पलट हो गई है और वहाँ एक उदासीनता का वातावरण छाया है। उनका पुत्र उसी प्रकार उसी प्रकार कुल्हाड़ी हाथ में लेकर बैठा था और पत्नी पौधों में पानी दे रही थी यह देखकर उनके में कुछ ठंडक पड़ी। वे दौड़कर पुत्र के पास पहुँचे और उसे गोदी में लेकर बोले- "बेटा ! बेटा !!"अब पुत्र अपनी विचारधारा से जाग्रत हुआ। वह पिता के चरणों में पड़कर कहने लगा- "पिताजी ! मुझे क्षमा करो, मुझसे आपकी आज्ञा का पालन नहीं हो सका। माँ को नहीं मारा जा सकता। माँ ने मुझे जन्म दिया, पालन किया, बड़ा किया और मुझे मनुष्य बनाया। अब मैं हैवान कैसे बन सकता हूँ ? नहीं ! नहीं !! मेरी आत्मा यही कहती है कि माँ को नहीं मारा जा सकता "

आनन्द में मग्न होकर ऋषि ने उसे छाती से लगाते हुये कहा- "सच्ची बात है, बेटा, माँ को नहीं मारा जा सकता तूने छोटी आयु में ही उस सत्य को समझ लिया है, जिसे मैं वर्षों तक तपश्चर्या करने पर भी समझ सका था। मैं क्रोध के आवेश में तुझे एक पाप कर्म की आज्ञा दे गया था। अब मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। अच्छा हुआ कि तू अपनी चिरकाल तक विचार करने की आदत के कारण अभी तक सोचता ही रहा। अगर तू तुरन्त मेरी आज्ञा का पालन कर डालता, तो मैं आज पत्नी का हत्यारा कहलाता और मुझे स्त्री हत्या का पाप लगता "

वे फिर कहने लगे— “और सुन बेटा जगत में मेरा नाम भुला दिया जायेगा, तेरी माता का नाम भी नहीं रहेगा, इस प्रसंग में तेरी चिरकाल तक विचार करने की आदत के फलस्वरूप तेरा "चिरकाल" नाम सदैव अमर रहेगा

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