संन्यासी कौन ?

उन दिनों विवेकानन्द भारत भ्रमण के लिये निकले हुए थे। इसी क्रम में घूमते हुए एक दिन हाथरस पहुँचे। भूख और थकान से उनकी विचित्र हालत हो रही थी। कुछ सुस्ताने के लिये वे एक वृक्ष के नीचे निढाल हो गये।अरुणोदय हो चुका था। उसकी सुनहरी किरणें स्वामी जी के तेजोद्दीप्त चेहरे पर पड़कर उसे और कान्तिवान बना रही थीं। इसी समय उधर से एक युवक निकला। स्वामी जी के आभावान चेहरे को देखकर ठिठका। अभी वह कुछ बोल पाता, इससे पूर्व ही उनकी आँखें खुली और एक मृदु हास्य बिखेर दिया। प्रत्युत्तर में युवक ने हाथ जोड़ लिये और आग्रह भरे स्वर में कहा- "आप कुछ थके और भूखे लग रहे हैं। यदि आपत्ति हो, तो चलकर मेरे यहाँ विश्राम करें।"बिना कुछ कहे स्वामी जी उठ पड़े और युवक के साथ चलने के लिये राजी हो गये।

चार दिन बीत गये। नरेन्द्र अन्यत्र प्रस्थान की तैयारी करने लगे। इसी समय वह युवक उनके समक्ष उपस्थित हुआ चल पड़ने को तैयार देख उसने पूछ लिया "क्या अभी इसी समय प्रस्थान करेंगे ?""हाँ, इसी वक्त " उत्तर मिला "तो फिर मुझे भी संन्यास दीक्षा देकर अपने साथ ले चलिये, मैं भी संन्यासी बनूँगा।" स्वामीजी मुस्करा दिये बोले- "संन्यास और संन्यासी का अर्थ जानते हो ?" "जी हाँ, भलीभाँति जानता हूँ। संन्यास वह जो मोक्ष की ओर प्रेरित करे और संन्यासी वह जो मुक्ति की इच्छा करे।किसकी मुक्ति ?” स्वयं की, साधक की।" तत्क्षण उत्तर मिला।

स्वामीजी खिलखिलाकर हँस पड़े। बोले- "तुम जिस संन्यास की चर्चा कर रहे हो, वह नहीं, पलायनवाद है। संन्यास कभी ऐसा था, आगे होने वाला है। तुम इस पवित्र आश्रम को इतना संकीर्ण बनाओ। यह इतना महान् शक्तिवान है कि जब कभी इसकी आत्मा जागेगी, तो बम की तरह धमाका करेगा। तब भारत, भारत (वर्तमान दयनीय भारत) रहकर, भारत (आभायुक्त), महाभारत, विशाल भारत बन जायेगा और एकबार पुनः समस्त विश्व इसके चरणों में गिरकर शान्ति के सन्देश की याचना करेगा। यही अटल निर्धारण है। ऐसा होने से कोई भी रोक नहीं सकता। अगले ही दिनों यह होकर रहेगा। मैं स्पष्ट देख रहा हूँ कि भारत के युवा संन्यासी इस मुहिम में पूर्ण निष्ठां के साथ जुट पड़े हैं और अपनी सम्पूर्ण क्षमता लगाकर इसे मूर्तिमान करने में कुछ भी कसर उठा नहीं रख रहे हैं। इनके प्रयासों से भारत की आत्मा को जगते, मैं देख रहा हूँ और देख रहा हूँ उस नवविहान को, जिसकी हम सबको लम्बे समय से प्रतीक्षा है "

 

तनिक रुककर उन्होंने पुनः कहना आरम्भ किया"यह वही संन्यास है, जिसकी सामर्थ्य को हम विस्मृत कर चुके हैं, जिसके दायित्व को भुला चुके हैं। इसका तात्पर्य आत्म-मुक्ति कदापि नहीं हो सकता। यह स्वयं में खो जाने की, अपने तक सीमित होने की प्रेरणा हमें नहीं देता, वरन् आत्मविस्तार का उपदेश करता है। यह व्यक्ति की मुक्ति का नाम नहीं, अपितु समाज की, विश्व की, समस्त मानव जाति की मुक्ति का पर्याय है। यह महान् आश्रम अपने में दो महान् परम्पराओं को साथ लेकर चलता है साधु और ब्राह्मण की। साधु वह, जिसने स्वयं को साध लिया। ब्राह्मण वह, जो विराट् ब्रह्म की उपासना करता हो, उसी की स्वर्ग मुक्ति की बात सोचता हो। तुम्हारा संन्यास गुफा-कन्दराओं तक, एकान्तवास तक परिमित है किन्तु हमारा संन्यास जन-संकुलता का नाम है। वाणी कुछ क्षण के लिये रुकी, तत्पश्चात् पुनः उभरी— "बोलो ! तुम्हें कौन-सा संन्यास चाहिये ? एकान्त वाला आत्म-मुक्ति का संन्यास या साधु-ब्राह्मणों वाला सर्व-मुक्ति का संन्यास ?"

युवक स्वामीजी के चरणों में गिर पड़ा, बोला- "नहीं, नहीं मेरा आत्म-मुक्ति का मोह भंग हो चुका है। मुझे ऐसा संन्यास नहीं चाहिये। मैं समाज की स्वर्ग मुक्ति के लिये काम करूँगा। देखा जाय तो समाज-मुक्ति के बिना व्यक्ति की अपनी मुक्ति सम्भव नहीं।"युवक के इस कथन पर स्वामीजी ने सिर हिलाकर सहमति प्रकट की। एक क्षण के लिये दोनों के नेत्र मिले मान प्राण-प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया चल पड़ी हो। फिर उसे गुरु ने उठाकर गले से लगा लिया और कहा- "आज से शरत्चन्द्र गुप्त नहीं, स्वामी सदानन्द हुए" गुरु-शिष्य दोनों उसी समय आगे की यात्रा पर प्रस्थान कर गये।

                      धन्यवाद 

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