पूजा का मर्म

 

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा आई और भक्तगण भगवती नवरात्रि की उपासना, पूजा पुरश्चरण में लग गये। भक्त कुरेश पुत्र पाराशर भट्ट ने भी सदा की भाँति गृह-मन्दिर को खूब सजाया और उस दिन नवरात्रि की विशेष उपासना का श्रीगणेश अपने ही हाथों सम्पन्न किया, ज्योति स्वरूपा भगवती गायत्री की प्रतिमा, ज्योति कलश की स्थापना, पंचोपचार और जप में कोई अधिक समय नहीं लगाया। उन्होंने स्तोत्र पाठ भी नहीं किया, थोड़े ही समय में प्रसन्न मुद्रा में पूजा-गृह से बाहर निकल आए।

 दूसरे दिन की पूजा फिर उनके ब्राह्मण ने ही की। बड़े भाव से उसने जप-ध्यान और स्तवन किया। श्लोक खूब जोर-जोर से पढ़े और जितना समय उपासना में लगना चाहिये उतना ही लगाया, किन्तु अभी वह पूजागृह से बाहर निकले ही थे कि पाराशर भट्ट ने टोका-"पण्डित जी आज भी आपने यथेष्ट पूजा नहीं की ?"

 ब्राह्मण को बड़ा गुस्सा आया, पर वह तो मात्र रसोइया थे। गृहस्वामी की आज्ञा से पूजा भी कर दिया करते थे। उन्हें अपने वेतन से मतलब था, इसलिये गृहस्वामी की डॉट-डपट भी सुन लेते थे। उन्हें दुःख इस बात का होता था कि पाराशर आप तो स्वयं कभी १० मिनट, कभी घण्टा अस्त-व्यस्त पूजा करते हैं और मैं जो हिसाब से पूजा करता हूँ, उसे सदैव ही कम बताते रहते हैं ? इस आशय की शिकायत वे कई बार उनकी माता जी से भी कर चुके थे। माता जी ने पुत्र को कई बार समझाया भी था कि बेटे ! पण्डित जी की आलोचना किया कर, आलोचना करना तो वैसे ही अच्छा नहीं होता, पर जाने पाराशर को क्या अभाव दिखाई देता कि वह जब भी पण्डित जी को पूजागृह से बाहर निकलते देखकर, टोकते अवश्य-पण्डित जी आज भी आपने यथेष्ट पूजा नहीं की। आज पण्डित जी अधिक क्रोध में गये, सो उन्होंने माता जी से भी स्पष्ट कह दिया-पाराशर जी को स्वयं तो पूजा आती नहीं, फिर उन्हें इस तरह बार-बार आलोचना करने का क्या अधिकारमाता जी ने आज भी पण्डित जी को ध्यान से ही सुना, पर बोलीं कुछ नहीं। 

 कूरेश भगवान की भक्ति में अपनी सारी सुध-बुध खो बैठे थे, इसलिये पुत्र पाराशर के पालन-पोषण का सारा उत्तरदायित्व उनकी माता ने ही निभाया था। वे अपने पुत्र की गम्भीरता और उसकी ईश्वर भक्ति को अच्छी तरह समझती थीं, तो भी वह यह चाहती थीं कि बच्चे में यह दोष भी क्यों रहे, इसलिये वे आज तक सदैव ही पाराशर को डाँट देती थीं, किन्तु आज उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि ब्राह्मण की आशंका का निराकरण होना ही चाहिये अन्यथा उसे उपासना के प्रति भ्रान्ति बनी रहेगी।

 इससे पूर्व कि वह पण्डित जी से कुछ कहें, उन्होंने पाराशर को बुलाया और बोली- "तात् ! मुझे पता है कि पण्डित जी जब भगवती गायत्री का स्तवन और देवी भागवत् का पाठ कर रहे होते हैं, तब तू उसमें इतना लीन हो जाता है कि पण्डित जी की यथेष्ट पूजा का समय भी तुझे कम लगता है, पर अपनी रसानुभूति के लिये किसी और का तो जी नहीं दुःखाना चाहिये क्या यह भागवत् धर्म नहीं कि आत्म-कल्याण की जितना साधना सम्भव हो स्वयं पूरी की जाए, यदि और कोई इच्छानुकूल साथ दे तो उसे दोषी क्यों ठहराया जाए ?”पाराशर ने अम्बिका के चरण स्पर्श कर क्षमा याचना की और वचन दिया आगे वह कभी ऐसा नहीं करेंगे।

 दूसरे, तीसरे, चौथे दिन भी ब्राह्मण ने ही पूजा की पाराशर भट्ट पास ही बैठे सब सुनते, पर पहले की तरह अब उन्होंने एक दिन भी नहीं टोका। ब्राह्मण को अपनी इस विजय का बड़ा अभिमान था वह जब पूजागृह से निकलते तो अकड़कर यह जताते हुये कि पाराशर जी पूजा तो हमारी है। कितनी देर पूजा करते हैं, एक तुम हो जो आधा घण्टे भी मन्दिर में नहीं बैठा जाता ? पाराशर उन्हें देखकर थोड़ा मुसकरा देते और फिर दोनों ही अपने-अपने काम से लग जाते 

आज पूर्णाहूति थी। निर्धारित परम्परा के अनुसार आज कुटुम्बियों और मित्रजनों का प्रीतिभोज भी सम्पन्न होना था, उसके लिये दिनभर तैयारी होती रही। ब्राह्मण ने तरह-तरह के पकवान बनाये, पहले भोजन परोसते भी वही थे, किन्तु आज जाने किस आशय से भोज के समय माता जी ने ब्राह्मण को छुट्टी दे दी और सबके साथ उन्हें भी भोजन में बैठ जाने को कहा परोसने का कार्य आजउन्होंने स्वयं ही सँभाल लिया था ।सब लोग बैठ गये, पण्डित जी और पाराशर जी पास-पास बैठाये गये। माता जी ने परोसना प्रारम्भ किया। सब कुछ परोस जाने के बाद खीर परोसने की बारी आई। माता जी कटोरा लिये परोसती हुईं, जब पाराशर के पास पहुँची तो यह कहती हुई लौट गईं खीर कम हो गई अभी लाती हूँ। दुबारा आई तो उनके हाथ में दूसरा कटोरा था। उसमें से पाराशर और ब्राह्मण दोनों को खीर परोसी गई। सब लोगों ने भोजन करना प्रारम्भ कर दिया

 पर यह क्या ? ब्राह्मण ने खीर मुख से लगाई तो वह कठिनाई से ही निगली जा सकी। खीर में इतना नमक, उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ। पंगत में बैठे सभी लोग कितने प्रेम से खीर का स्वाद ले रहे हैं, फिर पाराशर जी को तो अपने साथ ही खीर परोसी गई थी, वह भी तो उसी तरह खा रहे हैं, जिस तरह और सब, उन्हें समझ में नहीं आया, बात क्या है ?

 बेचारे खीर खा भी नहीं सकते थे, क्योंकि उसमें नमक की मात्रा बहुत अधिक थी, इसलिये उन्होंने माता जी को पास बुलाकर पूछ ही लिया। माता जी आपने नमकीन खीर बनवाई थी, वह लगता है भूल से हमें और पाराशर जी को परोस दी। माता जी ने विस्मय की मुद्रा बनाते हुए कहा- "नमकीन खीर गई, पर पाराशर ने तो कुछ नहीं कहा।" फिर पाराशर की ओर देखते हुए उन्होंने पूछा- "वत्स !" क्या सचमुच खीर नमक वाली है ?" पाराशर जी अब तक आधी खीर खा चुके थे, ने उंगली से उठाकर चखा और बोले-"अरे हाँ माँ। खीर तो सचमुच नमकीन है ? ब्राह्मण को बड़ा कौतूहल था, इन्होंने आधी खीर खा ली- तब भी नमकीन होने का पता नहीं चला और मुझसे एक कौर भी नहीं खाया गया, उनके विस्मय को उभारते हुये माता जी ने पूछा- "अरे पाराशर तूने आधी खीर खाली और तब भी तुझे पता नहीं चला "

 विनीत भाव से पाराशर ने कहा- "अम्बे ! आज पण्डित जी ने भगवती गायत्री की एक ऐसी स्तुति गाई थी, जिसमें उनकी मनोहर छवि का वर्णन था। नीले आकाश में सूर्य तेज मध्यस्थ प्रकट होकर उन्होंने अपने भक्तपुत्र शुम्भ-निशुम्भ को किस तरह वरदान दिया कुछ ऐसा ही वर्णन था, जब से वह सुना मन में वही चित्र रम गया है, मैं उसी विचार में डूब गया था, क्या जगत् जननी वैसी भक्ति, वैसा अनुग्रह मुझे प्रदान नहीं करेंगी। माँ उस तल्लीनता में ही यह ध्यान नहीं रहा कि खीर में नमक है या मीठा "

 इससे पूर्व कि माता जी ब्राह्मण से कुछ कहें, उसने स्वयं उठकर पाराशर के पैर पकड़ लिये और कहा "तात् ! मैंने सारी बात आज समझी। पूजा के इस मर्म को समझ गया होता तो मेरा भी कल्याण हो गया होता। भावनाओं से की गई 5 मिनट की पूजा सचमुच एक घण्टे की उपासना से अधिक फलदायक होती हैं, जो केवल समय पूरा करने के लिये की जाती है।"

 पण्डित जी भी आज इतने भाव-विभोर थे कि उन्हें पता भी चला कि उनकी बात सुनने के लिये माता जी वहाँ है भी नहीं, जब उन्होंने दृष्टि उठाई तो देखा माता जी मीठी खीर से भरा कटोरा लिये रही है।              पूजा का असली मर्म यही है कि ईश्वर के भाव में विभोर हो जाना

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