युधिष्ठिर की उपासना
युधिष्ठिर की उपासना
एक-दूसरे के मुख से निकलती हुई यह बात अनेक कानों में समा गई। भले ही कहने वालों के स्वर धीमे हो पर सभी के मन में आश्चर्य तीव्र हो उठा। "क्या करते हैं सम्राट, कहाँ जाते हैं ?" यद्यपि युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व ही उन्होंने इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि शाम का समय उनकी व्यक्तिगत उपासना के लिए है। इस समय उन्हें कोई व्यवधान न पहुँचाए ।
"लेकिन वेष बदलकर जाना ? अर्जुन के स्वर के पीछे चिन्ता की झलक थी। प्रश्न उनकी सुरक्षा का है। भीम कुछ अधिक उद्विग्न थे। इससे सहायक सेनाएँ विचलित हो सकती हैं। नकुल, सहदेव प्रायः एक साथ बोले। महायुद्ध का वेगपूर्ण प्रवाह पिछले दस दिनों से धावमान था। ऐसे में इन सबका चिन्तित होना स्वाभाविक था। इन भाइयों की भाँति अन्य प्रियजनों की भी यही मनोदशा थी। सत्य को जानने का उपाय-उद्वेगपूर्ण मानसिकता चिन्ताकुल चित्त नहीं। एक ही समाधान है शान्त में शोधपूर्ण कोशिश। पार्थसारथी के शब्दों ने सभी के मन में घुमड़ रहे प्रश्न का उत्तर साकार कर दिया। दिन छिपते ही युधिष्ठिर जैसे ही अपने कक्ष से बाहर निकले। अन्य पाण्डव भी उनके पीछे हो लिए। मद्धिम पड़ते जा रहे प्रकाश में इन्होंने देखा महाराज अपने हाथ में कुछ लिए उधर की ओर बढ़ रहे हैं, जिधर दिन में संग्राम हुआ। यह देखकर सभी की उत्सुकता और बढ़ गई। वे अपने को छिपाए उनका सावधानी से पीछा कर रहे थे।
युद्धस्थल आ गया तो सब एक ओर छिपकर खड़े हो गए। तारों के मन्द प्रकाश में इन सबकी आंखें पूर्ण सतर्कता से देख रही थीं आखिर अब ये करते क्या हैं ? इनकी ओर से अनजान युधिष्ठिर उन मृतकों में घूम-घूम कर देखने लगे कोई घायल तो नहीं है, कोई प्यासा तो नहीं है, कोई भूख से तड़प तो नहीं रहा, किसी को घायलावस्था में अपने स्नेही स्वजनों की चिन्ता तो नहीं सता रही। वे घायलों को ढूँढ़ते उनसे पूछते और उन्हें अन्न-जल खिलाते-पिलाते बड़ी देर तक वहाँ घूमते रहे। कौरव पक्ष का रहा हो या पाण्डव पक्ष का, बिना किसी भेदभाव के वह सबकी सेवा करते रहे। किसी को घर की चिन्ता होती तो वे उसे दूर करने का आश्वासन देते। इस तरह उन्हें रात्रि के तीन पहर वहाँ बीत गए ?
ये सभी उनके लौटने की प्रतीक्षा में खड़े थे। समय हो गया। युधिष्ठिर लौटने लगे तो ये सभी प्रकट होकर सामने आ गए। अर्जुन ने पूछा "आपको यों अपने आपको छिपाकर यहाँ आने की क्या जरूरत पड़ी ?"
युधिष्ठिर सामने खड़े अपने बन्धुओं को सम्बोधित कर बोले- "तात् ! इनमें से अनेकों कौरव दल के हैं, वे हमसे द्वेष रखते हैं। यदि मैं प्रकट होकर उनके पास जाता तो वे अपने हृदय की बातें मुझसे न कह पाते और इस तरह मैं सेवा के सौभाग्य से वंचित रह जाता।" भीम तनिक नाराज होकर कहने लगे- "शत्रु की सेवा करना क्या अधर्म नहीं है ?"
"बन्धु शत्रु मनुष्य नहीं पाप और अधर्म हुआ करता है।" युधिष्ठिर का स्वर अपेक्षाकृत कोमल था। "अधर्म के विरुद्ध तो हम लड़ ही रहे हैं पर मनुष्य तो आखिर आत्मा है, आत्मा का आत्मा से क्या द्वेष ?" भीम युधिष्ठिर की इस महान् आदर्शवादिता के लिए नतमस्तक न हो पाए थे, तब तक नकुल बोल पड़े— "लेकिन महाराज! आपने तो सर्वत्र यह घोषित कर रखा है कि यह समय आपकी ईश्वरोपासना का है, इस तरह झूठ बोलने का पाप तो आपको लगेगा ही।"
"नहीं नकुल।" युधिष्ठिर बोले- "भगवान की उपासना, जप-तप और ध्यान से ही नहीं होती, कर्म भी उसका उत्कृष्ट माध्यम है। यह विराट् जगत् उन्हीं का प्रकट रूप है। जो दीन-दुःखी जन है उनकी सेवा करना, जो पिछड़े और दलित हैं, उन्हें आत्मकल्याण का मार्ग दिखाना भी भगवान का ही भजन है। इस दृष्टि से मैंने से जो किया वह ईश्वर की उपासना ही है।" अब और कुछ पूछने को शेष नहीं रह गया था।
सहदेव ने आगे बढ़कर उन्हें प्रणति निवेदन करते हुए कहा- "लोग सत्य ही कहते हैं जहाँ सच्ची धर्मनिष्ठा होती है, विजय भी वहीं होती है। हमारी जीत का कारण इसीलिए सैन्यशक्ति नहीं, आपकी धर्मपरायणता की शक्ति है।"
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